अंधेरे से उजाले की ओर

 पूर्वी यूरोप का एक छोटा-सा देश था—जिसका नाम इतिहास की किताबों में कभी बड़े अक्षरों में नहीं लिखा गया, लेकिन वहाँ के लोगों ने दुनिया को दिखा दिया कि तानाशाही कितनी भी मजबूत क्यों न हो, जनता की एकजुटता से वह टूट जाती है।

                       (पूर्वी यूरोप -प्रतीकात्मक फोटो)


इस देश पर तीस सालों तक एक ही शासक का राज था। उसका नाम था एलेक्सान्द्र वोल्कोव। बचपन में उसने अपने लोगों को गरीबी में देखा था, लेकिन सत्ता मिलते ही वही व्यक्ति अपने ही देश का सबसे बड़ा शोषक बन गया। उसने सेना को अपने अधीन कर लिया, मीडिया को सिर्फ अपने गुणगान के लिए बाँध दिया और हर गाँव–शहर में जासूस बैठा दिए।

लोगों की हालत यह थी कि वे खुले में बातें करने से डरते थे। अगर किसी ने सरकार की आलोचना की तो रातों-रात वह गायब हो जाता। कारखाने सरकार के कब्जे में थे, किसानों की उपज जब्त कर ली जाती और सामान्य लोग रोटी के लिए भी तरसते।

डर का साम्राज्य

लोगों ने तानाशाह के आदेशों को मानना सीख लिया था। बच्चों को स्कूल में सिखाया जाता कि “वोल्कोव ही देश का पिता है, वही सब कुछ है।” शहर की दीवारों पर उसी की तस्वीरें टंगी होतीं। उसके भाषणों में हमेशा यही दोहराया जाता—

“देश मेरी वजह से जीवित है, अगर मैं न रहूँ तो अराजकता फैल जाएगी।”

लोग बाहर से सिर हिलाते, लेकिन भीतर ही भीतर घुटते रहते।

                    (पूर्वी यूरोप -प्रतीकात्मक फोटो)

 

एक शिक्षक की कहानी

इसी देश के एक छोटे से कस्बे में मिखाइल नाम का शिक्षक रहता था। वह इतिहास पढ़ाता था और अपने छात्रों को चुपके से यह बताता था कि असली ताकत जनता में होती है, किसी शासक में नहीं। वह अपने विद्यार्थियों को पुराने स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियाँ सुनाता, लेकिन खुलकर तानाशाह का नाम लेने से डरता।

मिखाइल का सपना था—“कभी तो यह देश आज़ाद हवा में सांस ले।”

उसकी कक्षा में एक छात्रा थी—लीना। बारहवीं की यह छात्रा सवाल पूछने से नहीं डरती थी। वह अक्सर कहती—

“सर, अगर सब डरते रहेंगे तो बदलाव कैसे आएगा?”

मिखाइल मुस्कुराकर जवाब देता—

“बदलाव के लिए हिम्मत चाहिए, और हिम्मत अकेले से नहीं आती, हिम्मत तब आती है जब लोग एक-दूसरे पर भरोसा करें।”

पहली चिंगारी

साल 1987 की ठंडी सर्दी थी। सरकार ने एक नया कर लगाया, जिससे मजदूरों की आधी कमाई चली जाती। मजदूर वर्ग भूखा मरने की कगार पर आ गया। पहली बार हजारों लोग राजधानी की सड़कों पर उतर आए। उनके हाथों में सिर्फ रोटियाँ थीं और वे नारे लगा रहे थे—

“हमें जीने दो, हमें रोटी दो।”

सेना ने भीड़ पर गोलियाँ चलाने का आदेश दिया। कई लोग मारे गए। अख़बारों ने अगली सुबह सिर्फ इतना लिखा—“कुछ गद्दारों को सबक सिखाया गया।”

लेकिन यह घटना देशभर में आग की तरह फैल गई। मारे गए मजदूरों के खून ने लोगों को एकजुट कर दिया।

आंदोलन की गूंज

युवा छात्रों ने भूमिगत पर्चे बाँटना शुरू किया। उनमें लिखा होता—

“डरो मत, हम साथ हैं।”

“तानाशाही अमर नहीं होती।”

लीना भी इस आंदोलन में शामिल हो गई। वह रात में गाँव-गाँव जाकर छोटे-छोटे समूह बनाती और लोगों को समझाती कि उनका डर ही तानाशाह की ताकत है।

धीरे-धीरे यह चिंगारी पूरे देश में फैल गई।

निर्णायक क्षण

1989 में राजधानी में लाखों लोग इकट्ठा हुए। वे खाली हाथ थे, बस उनके पास अपनी आवाज़ थी। नारे गूंज रहे थे—

“आज़ादी! आज़ादी!”

तानाशाह वोल्कोव ने सेना को आदेश दिया—“इन्हें कुचल दो।”

लेकिन कुछ सैनिकों ने अपने हथियार नीचे रख दिए और भीड़ में शामिल हो गए। उन्होंने कहा—

“हम जनता पर गोली नहीं चलाएँगे।”

यह दृश्य पूरी दुनिया ने देखा। वह क्षण था जब तानाशाह की नींव हिल गई।

तानाशाही का पतन

कुछ ही दिनों में वोल्कोव को देश छोड़कर भागना पड़ा। लोग उसकी मूर्तियाँ गिरा रहे थे, उसकी तस्वीरें उतार रहे थे। सड़कों पर आज़ादी का जश्न था।

मिखाइल, वह शिक्षक, अपने छात्रों के साथ खड़ा था। उसकी आँखों में आँसू थे। लीना उसके पास आकर बोली—

“सर, आपने कहा था न कि हिम्मत अकेले से नहीं आती। देखिए, आज पूरा देश एकजुट है।”

मिखाइल ने कहा—

“हाँ, लीना। यही है जनता की असली ताकत। तानाशाही चाहे कितनी भी लंबी क्यों न हो, अंततः वह टूट जाती है।”

प्रेरणा

उस छोटे-से देश की कहानी दुनिया भर में मशहूर हो गई। यह साबित हो गया कि डर टूटे तो दीवारें गिर जाती हैं। जनता की एकता सबसे बड़ा हथियार है।

तानाशाही से लड़ाई सिर्फ बंदूकों से नहीं, बल्कि साहस, भरोसे और एकजुटता से जीती जाती है।

👉 संदेश:

यह कहानी हमें सिखाती है कि जब लोग अन्याय और भय को स्वीकार करना बंद कर देते हैं, तभी सच्चा बदलाव आता है। चाहे शासक कितना ही शक्तिशाली क्यों न दिखे, असली ताकत हमेशा जनता में होती है।







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