“जनता की चुप्पी, सत्ता की जीत”
“जनता की चुप्पी, सत्ता की जीत”
एक ठंडी सर्दी की शाम थी। जनवरी की बर्फ़ीली हवा पोलैंड की गलियों में बह रही थी। गाँव-गाँव और शहर-शहर में लोग चुनाव को लेकर चर्चा कर रहे थे। यह पहला मौका था जब उन्हें लगा था कि युद्ध के बाद शायद अब सच्चा लोकतंत्र लौटेगा। लोग आशा और उम्मीद से भरे हुए थे कि उनकी आवाज़ संसद तक पहुँचेगी।
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(पोलैंड की प्रतीकात्मक फोटो) |
लेकिन मतदान के दिन जैसे ही सुबह का सूरज उगा, सड़कों पर एक अजीब खामोशी छा गई। मतदान केंद्रों के बाहर खड़े लंबे-लंबे बूट पहने सिपाही, जिनके सीने पर "ORMO" लिखा था, लोगों की आँखों में डर पैदा कर रहे थे। कई गाँवों में बूढ़े किसान और औरतें मतदान केंद्र तक पहुँचे भी नहीं। जो पहुँचे, वे काँपते हुए अपने मत डालने की कोशिश करते, मगर बंदूक़ ताने पहरेदार उनका रास्ता रोक लेते।
"क्यों आए हो यहाँ?" एक जवान ने तिरस्कार से कहा, "तुम्हारा वोट तो पहले ही दर्ज हो चुका है।"
आदमी चुपचाप लौट गया। उसकी आँखों में आँसू थे, पर होंठों पर शब्द नहीं।
कहीं-कहीं बहादुर युवक खड़े हुए, जिन्होंने कहा—“हम वोट डालेंगे, चाहे कुछ भी हो।” लेकिन वे मतदान पर्ची डालने से पहले ही पुलिस की गाड़ियों में ठूँस दिए गए। कई घरों में माताएँ रो रहीं थीं, क्योंकि उनके बेटे वोट देने गए थे और लौटकर नहीं आए।
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(डरे सहमें लोग) |
शाम तक जब मतदान समाप्त हुआ, तो पूरा वातावरण सन्नाटे से भर गया। लोग अपने घरों में बैठकर इंतज़ार कर रहे थे—क्या परिणाम आएगा? क्या उनकी आशा सफल होगी?
कुछ दिन बाद जब समाचार-पत्र खुले, तो हर तरफ एक ही खबर थी—“डेमोक्रेटिक ब्लॉक की शानदार जीत! 80% वोट!”
संसद में उनकी भारी बहुमत की तस्वीरें छपीं, जिसमें मुस्कुराते हुए नेता हाथ हिला रहे थे। लेकिन उन तस्वीरों के पीछे हजारों टूटे हुए सपने और दबाई गई आवाज़ें थीं।
विपक्षी नेता अपने छोटे से दफ़्तर में बैठे थे। चारों तरफ़ उनके साथियों की थकी और उदास आँखें थीं। किसी ने धीरे से कहा, “अगर हमें निष्पक्ष मौका मिलता, तो यह देश आज हमारी जीत मना रहा होता।” कमरे में सन्नाटा छा गया। किसी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन सबके दिल में यही बात गूंज रही थी।
बाज़ारों में लोग धीरे-धीरे फुसफुसाते—“ये चुनाव असली नहीं थे… ये तो पहले ही लिखे जा चुके थे।” लेकिन कोई खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं करता। डर का माहौल ऐसा था कि लोग अपने बच्चों को भी सिखाते—“राजनीति की बातें घर में मत करना, बाहर तो बिल्कुल भी मत बोलना।”
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(घर के बड़े बुजुर्ग बातें करते हुए) |
सर्दियों की वह रात पोलैंड के लोकतंत्र की आत्मा पर भारी थी। बर्फ़ गिरती रही, पर लोगों के दिलों में उम्मीद की लौ ठंडी पड़ गई। जो परिणाम अखबारों में छपे, वे केवल अंकों का खेल नहीं थे—वे एक पूरी पीढ़ी की चुप्पी का प्रतीक थे।
कहते हैं कि लोकतंत्र जनता की आवाज़ होता है, लेकिन उस साल पोलैंड में जनता की आवाज़ को बंदूकों और भय के पीछे कैद कर दिया गया था। संसद की इमारत रोशनी से जगमगा रही थी, पर गलियों में अंधेरा और निराशा थी।
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पोलैंड की सूनसान गली |
फिर भी, कुछ लोग उस अंधेरे में भी उम्मीद की लौ जलाए बैठे थे। उन्हें विश्वास था कि एक दिन सच्चाई सामने आएगी, एक दिन यह नकली बहुमत टूटेगा और असली जनता की ताक़त फिर उभरेगी।
और इस तरह, वह चुनाव पोलैंड के इतिहास में दर्ज हो गया—एक ऐसा चुनाव, जो हुआ तो लोकतंत्र के नाम पर था, लेकिन जिसमें लोकतंत्र की आत्मा को ही कैद कर लिया ग
या था।
Tags: राजनीति, लोकतंत्र, समाज, जनता की आवाज़
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