“तक्षशिला से नालंदा तक : भारत की गौरवगाथा”
गौरवशाली भारत की धरोहर : तक्षशिला से नालंदा तक
भारतवर्ष की धरा सदैव ज्ञान, परंपरा और संस्कृति की पावन गाथाओं से ओतप्रोत रही है। यह वह भूमि है जहाँ नदियाँ केवल जलधाराएँ नहीं रहीं, बल्कि सभ्यता और संस्कृति की वाहक बनीं। यह वह भूमि है जहाँ वेदों की ऋचाएँ गूँजीं, जहाँ उपनिषदों ने आत्मा और ब्रह्म का रहस्य बताया, और जहाँ आचार्य चाणक्य ने राजनीति और अर्थशास्त्र को गढ़ा। प्राचीन भारत केवल सोने की चिड़िया ही नहीं था, बल्कि ज्ञान और संस्कृति का भी अखंड भंडार था
(तक्षशिला विश्वविद्यालय -प्रतीकात्मक फोटो)
कहानी की शुरुआत : तक्षशिला की नगरी
ईसा पूर्व की तीसरी शताब्दी में, हिमालय की तलहटी में बसी तक्षशिला नगर विद्या और व्यापार का अद्भुत संगम था। दूर-दूर से यात्री वहाँ आते थे। ग्रीक यात्री मेगस्थनीज़, चीनी विद्वान फाह्यान और ह्वेनसांग सभी ने तक्षशिला और नालंदा की महिमा का वर्णन किया है।तक्षशिला की गलियों में सुबह-सुबह जब घंटियों की ध्वनि गूँजती थी, तो युवा विद्यार्थी अपने-अपने आचार्य के गुरुकुल की ओर जाते। कोई व्याकरण पढ़ने आता था, कोई खगोल शास्त्र, तो कोई युद्धकला सीखने के लिए। यहाँ शिक्षा केवल ग्रंथों तक सीमित नहीं थी, बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाई जाती थी।
कहते हैं कि वहीं पर युवा चंद्रगुप्त मौर्य ने आचार्य चाणक्य से राजनीति और युद्धनीति की शिक्षा ली थी। आचार्य चाणक्य ने उसे केवल शिष्य नहीं, बल्कि भारतवर्ष का भविष्य समझकर गढ़ा। परिणामस्वरूप एक ऐसा सम्राट खड़ा हुआ जिसने अखंड भारत का निर्माण किया।
गुरुकुल की परंपरा : शिक्षा का सच्चा रूप
गुरुकुल में शिक्षा मुफ्त दी जाती थी। विद्यार्थी दूर-दराज़ गाँवों से आते और आचार्य के साथ रहते। वे लकड़ियाँ लाते, जल भरते और अपनी सेवा से ही गुरुकुल का संचालन करते। यहाँ जाति-पाति का भेदभाव नहीं था।
कथाएँ कहती हैं कि महान वैद्य चरक और सुश्रुत भी इसी परंपरा से निकले। चरक ने चरक संहिता लिखकर आयुर्वेद को व्यवस्थित किया, जबकि सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा को विज्ञान का रूप दिया। सुश्रुत ने आँखों की शल्यक्रिया, हड्डियों का जोड़ना और प्लास्टिक सर्जरी जैसी विद्या का ज्ञान दिया, जो आज भी दुनिया के लिए आश्चर्य है।नालंदा : विश्व का अद्वितीय विश्वविद्यालय
(तक्षशिला विश्वविद्यालय -प्रतीकात्मक फोटो)
तक्षशिला के बाद शिक्षा का केंद्र बना नालंदा विश्वविद्यालय, जो गुप्त काल में अपनी पूर्णता पर पहुँचा। यह केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए ज्ञान का तीर्थस्थल था।
नालंदा में दस हज़ार से अधिक विद्यार्थी और लगभग दो हज़ार आचार्य रहते थे। यहाँ शिक्षा का स्तर इतना ऊँचा था कि प्रवेश पाना आसान नहीं था। विद्यार्थी को पहले द्वारपाल विद्वानों के प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता था, तभी वह अंदर जा पाता।
(नालंदा विश्वविद्यालय परिसर -प्रतीकात्मक फोटो)
यहाँ व्याकरण, गणित, दर्शन, चिकित्सा, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र, खगोल, साहित्य—सभी विषयों की शिक्षा दी जाती थी। नालंदा की विशाल पुस्तकालय धर्मगुंज में लाखों ग्रंथ थे। जब तुर्क आक्रांताओं ने नालंदा को जलाया, तो पुस्तकालय महीनों तक जलता रहा। यह दृश्य भारत की महिमा और उसकी बर्बादी दोनों का गवाह है।
भारत की गौरवशाली परंपराएँ
भारत केवल शिक्षा में ही नहीं, बल्कि समाज की जीवनशैली और संस्कृति में भी अग्रणी था।
वेद और उपनिषद – यहाँ आत्मा और ब्रह्म का रहस्य खोजा गया। "अहम् ब्रह्मास्मि" और "वसुधैव कुटुम्बकम्" जैसे विचार आज भी मानवता का पथप्रदर्शन करते हैं।
योग और आयुर्वेद – पतंजलि ने योगसूत्र दिए, जिससे मन और शरीर का संतुलन बना। आयुर्वेद ने स्वास्थ्य को प्राकृतिक पद्धति से जोड़ा।
( प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय परिसर का प्रतीकात्मक फोटो)साहित्य और कला – कालिदास जैसे कवियों ने संस्कृत साहित्य को ऊँचाइयाँ दीं। अजंता-एलोरा की गुफाएँ और भरतनाट्यम जैसी कलाएँ भारतीय सौंदर्यबोध की मिसाल हैं।
विज्ञान और गणित – आर्यभट्ट ने शून्य का सिद्धांत दिया, वराहमिहिर ने खगोल शास्त्र को विकसित किया, और भास्कराचार्य ने गणित की नई धारणाएँ प्रस्तुत कीं।
एक प्रेरक प्रसंग : चाणक्य और चंद्रगुप्त
आचार्य चाणक्य का एक प्रसंग भारत की गौरवशाली परंपरा को और स्पष्ट करता है।
कहते हैं कि एक बार वे मगध के राजा नंद की सभा में गए। राजा ने उनका अपमान कर दिया। चाणक्य ने प्रतिज्ञा की—"मैं तब तक अपने जटाएँ नहीं बाँधूँगा, जब तक नंद वंश का अंत कर भारत को एक महान सम्राट न मिल जाए।"
( धनानंद की सभा की प्रतीकात्मक फोटो)उन्होंने चंद्रगुप्त को चुना, जिसे उन्होंने शिक्षा, नीति और साहस से गढ़ा। चंद्रगुप्त ने संघर्ष कर नंद वंश को समाप्त किया और अखंड भारत का मौर्य साम्राज्य स्थापित किया।यह कथा केवल राजनीतिक विजय की नहीं, बल्कि शिक्षा और आचार्य-शिष्य की शक्ति की भी मिसाल है।
सांस्कृतिक जीवन : धर्म और करुणा का संगम
प्राचीन भारत में धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं था। धर्म का अर्थ था कर्तव्य। बौद्ध धर्म ने करुणा और अहिंसा का संदेश दिया, जैन धर्म ने अपरिग्रह और सत्य का मार् दिखाया। हिंदू परंपरा ने वेदांत और योग के माध्यम से आत्मा की उन्नति पर बल दिया। यही कारण था कि विदेशी यात्री जब भारत आए, तो उन्होंने यहाँ की सहिष्णुता, संस्कृति और करुणा की प्रशंसा की।
भारत की गौरवगाथा का संदेश
यह कहानी केवल अतीत की स्मृति नहीं है। यह हमें याद दिलाती है कि भारत की आत्मा सदैव ज्ञान, संस्कृति और करुणा में रही है। आज जब दुनिया आधुनिकता की दौड़ में है, तो भारत की प्राचीन परंपराएँ हमें यह सिखाती हैं कि—शिक्षा केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि जीवन का मार्गदर्शन है।संस्कृति केवल त्योहार और रीति-रिवाज नहीं, बल्कि आत्मा का आभूषण है।धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि मानवता के कर्तव्यों का पालन है।
निष्कर्ष
प्राचीन भारत की यह गाथा हमें गौरव से भर देती है। तक्षशिला और नालंदा से लेकर चाणक्य और आर्यभट्ट तक, योग और आयुर्वेद से लेकर वेदांत और करुणा तक—भारत की परंपरा मानवता के लिए अमूल्य धरोहर है।
आज हमें आवश्यकता है कि हम उस गौरव को केवल इतिहास की किताबों में न पढ़ें, बल्कि अपने जीवन में उतारें। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी हमारे प्राचीन भारत को।
आपको यह कहानी कैसी लगी हमें कमेंट करके जरूर बताएं। और हमें यह भी बताएं कि हम अपनी कहानी लिखने में किस तरह की गलतियां कर रहे हैं यह हमें किस टॉपिक पर कहानी लिखनी चहिए।
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