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जब एक इंसान ने अकेले ब्राह्मणवाद को ललकारा।

पेरियार: समानता की लड़ाई का बाग़ी नायक

भारत का इतिहास ऐसे व्यक्तित्वों से भरा हुआ है जिन्होंने समाज को बदलने और उसे नई दिशा देने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया। इन्हीं में से एक थे ई. वी. रामासामी ‘पेरियार’। उनका जन्म 17 सितंबर 1879 को तमिलनाडु के इरोड ज़िले में हुआ। वे आगे चलकर एक ऐसे समाज सुधारक बने जिन्होंने लोगों को जाति, धर्म और अंधविश्वास से परे सोचने की प्रेरणा दी। पेरियार का जीवन इस बात का प्रतीक है कि जब कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में बराबरी और न्याय की लड़ाई के लिए उठ खड़ा होता है, तो उसके विचार पीढ़ियों तक लोगों को मार्गदर्शन देते हैं।

(पेरियार -फोटो Source -wikimideia.org)

प्रारंभिक जीवन और सोच की नींव

पेरियार का जन्म एक साधारण व्यापारी परिवार में हुआ। बचपन से ही उन्होंने समाज में फैली असमानता और भेदभाव को देखा। उस समय समाज में जाति-आधारित ऊँच-नीच की भावना बहुत गहरी थी। छोटे होते हुए ही उन्हें यह महसूस हुआ कि केवल जन्म के आधार पर किसी को ऊँचा और किसी को नीचा मानना अन्याय है। युवावस्था में ही उन्होंने धार्मिक कर्मकांडों और पाखंड पर सवाल उठाने शुरू कर दिए।

पेरियार का झुकाव शुरू में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर हुआ। वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय रहे। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि राजनीतिक आज़ादी के साथ-साथ सामाजिक आज़ादी भी उतनी ही ज़रूरी है। उनका मानना था कि अगर जाति और लिंग आधारित भेदभाव को खत्म नहीं किया गया तो स्वतंत्र भारत भी अधूरा रहेगा।

आत्मसम्मान आंदोलन

साल 1925 में पेरियार ने “आत्मसम्मान आंदोलन” की शुरुआत की। इस आंदोलन का मक़सद लोगों को यह समझाना था कि वे अपनी पहचान, अपनी गरिमा और अपनी आज़ादी को किसी भी सामाजिक बंधन या अंधविश्वास के आगे न झुकाएँ। इस आंदोलन ने दक्षिण भारत में गहरी पैठ बनाई और समाज के निचले तबकों, महिलाओं और वंचित वर्गों को जागरूक किया।

आत्मसम्मान आंदोलन ने समाज में यह विचार फैलाया कि शिक्षा और तर्क ही वह हथियार हैं जो इंसान को बराबरी दिला सकते हैं। इस आंदोलन का प्रभाव आज भी तमिलनाडु की राजनीति और समाज में देखा जा सकता है।

जाति और भेदभाव के खिलाफ आवाज़

पेरियार ने जीवनभर जाति-प्रथा का विरोध किया। उनका मानना था कि जाति-प्रथा इंसानों को बाँटती है और समाज में स्थायी असमानता पैदा करती है। वे हमेशा कहते थे कि जब तक जाति की दीवारें टूटेंगी नहीं, तब तक सच्चा लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सकता।

उन्होंने मंदिरों में दलितों और पिछड़े वर्गों के प्रवेश का समर्थन किया और कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। पेरियार का यह साहस उस समय बेहद महत्वपूर्ण था, जब समाज में धार्मिक और सामाजिक असमानता गहराई से जमी हुई थी।

(पेरियार अम्बेडकर और जिन्ना )

महिला सशक्तिकरण के पैरोकार

पेरियार का मानना था कि समाज की प्रगति तभी संभव है जब महिलाएँ बराबरी से आगे बढ़ें। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्रता और समान अधिकारों की वकालत की। वे बाल विवाह, दहेज प्रथा और स्त्रियों की अशिक्षा के खिलाफ़ खड़े हुए। पेरियार ने यह संदेश दिया कि महिला केवल परिवार तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज और राष्ट्र की उन्नति में उसकी भूमिका समान रूप से महत्वपूर्ण है।

धर्म और तर्क

पेरियार धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के विरोधी थे। उन्होंने कभी भी ईश्वर या आस्था की आलोचना केवल आलोचना के लिए नहीं की, बल्कि उनका उद्देश्य था लोगों को तर्क और विवेक का प्रयोग करना सिखाना। उनका कहना था कि इंसान को अपने फैसले धर्मग्रंथों या परंपराओं पर अंधविश्वास करके नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि और विज्ञान की समझ से लेने चाहिए।

उन्होंने समाज को यह समझाया कि धर्म का उद्देश्य अगर इंसान को समानता और न्याय न दे सके तो ऐसे धर्माचार पर सवाल उठाना ज़रूरी है।

राजनीतिक योगदान और विरासत

पेरियार ने राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई। वे पहले कांग्रेस से जुड़े, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। इसके बाद वे जस्टिस पार्टी से जुड़े और बाद में द्रविड़ कड़गम (Dravidar Kazhagam) की स्थापना की।

उनकी विचारधारा से आगे चलकर DMK (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) और AIADMK जैसी पार्टियों ने प्रेरणा ली। आज तमिलनाडु की राजनीति में जो सामाजिक न्याय और आरक्षण की नीतियाँ दिखाई देती हैं, उनकी नींव पेरियार ने ही डाली थी।

पेरियार की विरासत

पेरियार को “तर्कवादी आंदोलन का जनक” कहा जाता है। उन्होंने यह सिखाया कि शिक्षा और बराबरी ही समाज को आगे ले जा सकती है। उनके विचारों का असर सिर्फ़ तमिलनाडु तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पूरे भारत में सामाजिक न्याय की बहस को नया आयाम मिला।

आज भी जब जाति और असमानता पर चर्चा होती है, तो पेरियार का नाम प्रेरणा के रूप में सामने आता है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि बदलाव केवल राजनीतिक नीतियों से नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और बराबरी की सोच से आता है।

निष्कर्ष

पेरियार केवल एक नेता नहीं, बल्कि एक आंदोलन थे। उन्होंने लोगों को यह सिखाया कि आत्मसम्मान, शिक्षा और तर्क के बिना समाज में बराबरी संभव नहीं है। वे सचमुच समानता की लड़ाई के बाग़ी नायक थे।

उनकी सोच आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उनके समय में थी। जब तक समाज में भेदभाव और असमानता मौजूद है, तब तक पेरियार के विचार हमें बराबरी और न्याय की राह दिखाते रहेंगे।

             ...... समाप्त .......


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