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चुनावी राजनीति: जनता की ताकत या नेताओं का खेल?

चुनावी राजनीति: जनता की ताकत या नेताओं का खेल?

लोकतंत्र की असली ताकत चुनावों में छिपी होती है। यही वह प्रक्रिया है जो नागरिकों को अपने शासकों को चुनने का अधिकार देती है और सत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह बनाती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या चुनावी राजनीति वास्तव में जनता की ताकत है या यह धीरे-धीरे नेताओं और दलों का खेल बन चुकी है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमें चुनावी राजनीति के विकास, इसके आदर्श और वास्तविकता को समझना होगा।

आधुनिक चुनावी राजनीति की जड़ें उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में मजबूत हुईं। जब यूरोप और अमेरिका में लोकतंत्र का विस्तार हुआ तो नागरिकों को यह विश्वास दिलाया गया कि वे अपने वोट के जरिए व्यवस्था बदल सकते हैं। भारत में भी स्वतंत्रता के बाद सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को अपनाया गया, जिसने यह सुनिश्चित किया कि हर व्यक्ति, चाहे वह अमीर हो या गरीब, पढ़ा-लिखा हो या निरक्षर, अपने नेता को चुन सके। यह व्यवस्था अपने आप में क्रांतिकारी थी, क्योंकि इससे पहले दुनिया के बहुत कम देशों ने सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए थे।

लेकिन समय के साथ यह साफ़ होता गया कि चुनाव सिर्फ़ जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं रहे। नेताओं और दलों ने इस प्रक्रिया को अपनी सत्ता की राजनीति के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया। चुनाव प्रचार में पैसे और ताकत का प्रभाव बढ़ने लगा। उम्मीदवार अपने विचारों और नीतियों से ज्यादा अपनी छवि, जातीय समीकरण और धर्म आधारित वोट बैंक पर निर्भर रहने लगे। लोकतंत्र का मूल आदर्श यह था कि जनता के मुद्दों पर चर्चा हो और उसी आधार पर नेतृत्व का चुनाव हो, लेकिन व्यवहार में यह अक्सर खोखला सिद्धांत बनकर रह गया।

भारतीय राजनीति में यह प्रवृत्ति बहुत गहराई से देखी जा सकती है। चुनावी रैलियों और भाषणों में बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, मुफ्त योजनाओं की घोषणाएँ होती हैं, और जातीय या धार्मिक ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की कोशिश की जाती है। जनता को विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी बातों के बजाय भावनात्मक मुद्दों में उलझा दिया जाता है। परिणामस्वरूप, आम नागरिक की वास्तविक समस्याएँ चुनावी बहस में पीछे छूट जाती हैं।

इसके बावजूद, चुनावों की शक्ति को कम करके नहीं आँका जा सकता। कई बार जनता ने अपने वोट से बड़े-बड़े नेताओं को सत्ता से बाहर कर दिया है। आपातकाल के बाद 1977 में इंदिरा गांधी की हार, या फिर 2014 में लंबे समय से सत्ता में बैठे दल का पतन—ये उदाहरण दिखाते हैं कि जब जनता चाहे तो नेताओं की सारी रणनीतियाँ धरी रह जाती हैं। यही लोकतंत्र की असली ताकत है।

चुनावों का दूसरा पहलू यह भी है कि यह जनता को राजनीतिक रूप से सक्रिय बनाता है। गाँव से लेकर शहर तक, लोग मतदान के समय राजनीति में रुचि लेते हैं, मुद्दों पर चर्चा करते हैं और नेताओं का मूल्यांकन करते हैं। भले ही कई बार जाति और धर्म का असर वोटिंग पैटर्न पर भारी पड़ता है, लेकिन धीरे-धीरे नागरिकों में जागरूकता भी बढ़ रही है। शिक्षा और मीडिया की भूमिका से यह उम्मीद बनती है कि भविष्य में मतदाता और भी समझदारी से अपने निर्णय लेंगे।

फिर भी यह सच है कि चुनावी राजनीति अक्सर नेताओं का खेल बन जाती है। चुनाव आयोग और न्यायपालिका जैसी संस्थाएँ निष्पक्षता बनाए रखने की कोशिश करती हैं, लेकिन पैसों का खेल, मीडिया प्रबंधन और बाहरी प्रभाव पूरी प्रक्रिया को चुनौती देते हैं। उम्मीदवार करोड़ों रुपए खर्च करते हैं, जबकि जनता से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सिर्फ़ एक दिन वोट डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दें। ऐसे में लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ना स्वाभाविक है।

इस स्थिति को सुधारने के लिए कई सुझाव दिए जाते रहे हैं। चुनावी खर्च पर सख्त नियंत्रण, राजनीतिक दलों की पारदर्शिता, उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि पर रोक और आंतरिक लोकतंत्र जैसी बातें लगातार उठाई जाती हैं। साथ ही, नागरिकों को भी यह समझना होगा कि वोट केवल एक अधिकार नहीं बल्कि जिम्मेदारी भी है। यदि जनता भावनात्मक मुद्दों से ऊपर उठकर वास्तविक समस्याओं को केंद्र में रखेगी तो नेताओं को भी मजबूर होना पड़ेगा कि वे अपनी रणनीतियाँ बदलें।

इसलिए कहा जा सकता है कि चुनावी राजनीति में जनता की ताकत और नेताओं का खेल दोनों साथ-साथ मौजूद हैं। जहाँ जनता अपने वोट से किसी भी सत्ता को बदल सकती है, वहीं नेता और दल भी चुनाव को अपने फायदे का मैदान बना लेते हैं। लोकतंत्र को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी केवल नेताओं की नहीं, बल्कि नागरिकों की भी है। जब तक जनता सजग रहेगी और अपनी ताकत को समझेगी, तब तक कोई भी नेता लोकतंत्र को केवल खेल बनाकर नहीं रख सकेगा।

अंततः चुनावी राजनीति लोकतंत्र की आत्मा है। यह जनता और सत्ता के बीच वह धागा है जो दोनों को जोड़ता है। अगर यह धागा केवल नेताओं के हाथ में रहेगा तो लोकतंत्र कमजोर होगा, लेकिन अगर जनता इस धागे को मजबूती से थामे रहेगी, तो यही व्यवस्था आगे भी समाज को न्याय, समानता और स्वतंत्रता की ओर ले जाएगी।



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