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एशियाई राजनीति: सत्ता की कुर्सी पर नेताओं का आजीवन कब्ज़ा

एशियाई राजनीति: सत्ता की कुर्सी पर नेताओं का आजीवन कब्ज़ा

एशिया में कई देशों की राजनीति में एक दिलचस्प लेकिन चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिलती है—नेता सत्ता की कुर्सी पर इतनी लंबे समय तक बने रहते हैं कि कभी-कभी यह पूरी पीढ़ियों तक सीमित हो जाती है। लोकतंत्र और राजनीतिक बदलाव की अवधारणा कई एशियाई देशों में कमजोर पड़ जाती है, और सत्ता का हस्तांतरण अक्सर परिवारों या विशेष समूहों के भीतर ही रह जाता है। यह केवल राजनीतिक व्यवस्था का सवाल नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी देशों के भविष्य को प्रभावित करता है। कजाख़स्तान, उत्तर कोरिया और कंबोडिया जैसे देशों के उदाहरण इस प्रवृत्ति को स्पष्ट रूप से दिखाते हैं।


कजाख़स्तान में नूरसुल्तान नज़रबायेव का शासन इस प्रवृत्ति का जीवंत उदाहरण है। नज़रबायेव ने 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद देश की सत्ता संभाली और लगभग तीन दशकों तक उसे बनाए रखा। उनके शासनकाल में न केवल राजनीतिक, बल्कि आर्थिक और सामाजिक नीतियों पर भी उनका व्यापक प्रभाव रहा। हालांकि उन्होंने 2019 में राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया, परंतु सत्ता की वास्तविक शक्ति उनके हाथों में बनी रही। नज़रबायेव ने "नेशन लीडर" का पद बनाकर अपने राजनीतिक प्रभाव को संरक्षित किया और देश की महत्वपूर्ण नीतियों और निर्णयों पर उनकी छाया बनी रही। उनके बाद आए राष्ट्रपति कासिम-जोमार्ट टोकायव ने भी नज़रबायेव की नीतियों और निर्णयों को जारी रखा। यह स्पष्ट संकेत है कि सत्ता का हस्तांतरण केवल औपचारिक था, वास्तविक नियंत्रण वही बरकरार रहा जो पहले था। इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि कजाख़स्तान में सत्ता की स्थायिता केवल एक व्यक्ति की प्रतिष्ठा या शक्ति पर निर्भर नहीं है, बल्कि एक संरचनात्मक रूप से स्थिर राजनीतिक व्यवस्था के रूप में विकसित हो गई है।

उत्तर कोरिया का उदाहरण इस प्रवृत्ति का चरम रूप है। किम परिवार ने देश की स्थापना से लेकर वर्तमान तक सत्ता पर लगातार कब्ज़ा बनाए रखा है। किम इल-सुंग ने 1948 से 1994 तक उत्तर कोरिया पर शासन किया, और उनके बाद उनके बेटे किम जोंग-इल ने सत्ता संभाली। वर्तमान में उनके पोते किम जोंग-उन देश की सत्ता में हैं। यह पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता का हस्तांतरण दुनिया में शायद ही कहीं और देखने को मिले। किम जोंग-उन ने केवल सत्ता को बनाए रखने के लिए नीतियों और मीडिया पर पूरी तरह नियंत्रण रखा, बल्कि उत्तर कोरिया के सामाजिक और आर्थिक जीवन में भी उनका वर्चस्व है। हाल ही में उनकी बेटी किम जू-ऐ को उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिससे यह संकेत मिलता है कि यह वंशानुगत शासन आने वाले वर्षों में भी जारी रहेगा। उत्तर कोरिया में सत्ता केवल एक परिवार तक सीमित है, और इसके परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक स्वतंत्रताओं की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

कंबोडिया में भी सत्ता के इस स्थायी कब्ज़े के उदाहरण देखने को मिलते हैं। हुन सेन ने 1985 में प्रधानमंत्री पद संभाला और 2023 तक इस पद पर बने रहे। उन्होंने देश की राजनीति पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखी और अपने शासनकाल में राजनीतिक विरोधियों को कमजोर किया। हाल ही में उन्होंने प्रधानमंत्री पद अपने बेटे हुन मानेत को सौंपा, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि सत्ता का हस्तांतरण केवल औपचारिक है, वास्तविक नियंत्रण अभी भी उनके परिवार के हाथ में है। यह कदम कंबोडिया में वंशानुगत सत्ता की स्पष्ट छवि प्रस्तुत करता है, जहाँ राजनीतिक निर्णय और संसाधनों का नियंत्रण एक सीमित समूह के भीतर ही रखा जाता है।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि एशियाई राजनीति में सत्ता का स्थायी कब्ज़ा केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं है, बल्कि यह कई बार सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों का परिणाम भी होता है। कई एशियाई देशों में मजबूत राजनीतिक संस्थाओं की कमी, लोकतांत्रिक मूल्यों की कमजोर समझ और केंद्रीय सत्ता की ताकत ने नेताओं को लंबे समय तक सत्ता में बने रहने का अवसर दिया है। इसके अलावा, राजनीतिक परिवारों और वंशानुगत सत्ता की संरचना ने सत्ता को एक सीमित समूह के भीतर बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

सत्ता की इस स्थायिता का प्रभाव केवल राजनीतिक स्तर तक सीमित नहीं है। इसका असर समाज, अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, उत्तर कोरिया में किम परिवार की सत्ता के कारण देश की अंतरराष्ट्रीय नीति बेहद सख्त और स्थिर रही है, लेकिन इसका परिणाम आम नागरिकों के लिए आर्थिक कठिनाइयों और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं की कमी के रूप में देखने को मिलता है। कजाख़स्तान और कंबोडिया में भी सत्ता का केंद्रीकरण आर्थिक नीतियों और संसाधनों के वितरण में असंतुलन पैदा करता है, जिससे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच असमानता बढ़ती है।

वास्तव में, एशियाई राजनीति में सत्ता की स्थायिता एक चुनौती है। यह लोकतांत्रिक मूल्यों, पारदर्शिता और संस्थागत विकास के लिए खतरा बन सकती है। जब सत्ता केवल एक व्यक्ति या परिवार तक सीमित हो जाती है, तो नीतिगत निर्णय व्यापक जनहित के बजाय व्यक्तिगत या पारिवारिक हितों के अनुरूप हो सकते हैं। इसके अलावा, राजनीतिक स्थिरता का यह भ्रम अक्सर वास्तविक लोकतांत्रिक सुधारों को रोक देता है और लंबे समय तक सत्ता का केंद्रीकरण जारी रखता है।

फिर भी, इन देशों में सत्ता के स्थायी कब्ज़े का अध्ययन करने से यह समझने में मदद मिलती है कि राजनीतिक शक्ति का केंद्रीकरण कैसे विकसित होता है और यह समाज और अंतरराष्ट्रीय राजनीति को कैसे प्रभावित करता है। कजाख़स्तान, उत्तर कोरिया और कंबोडिया के उदाहरण दर्शाते हैं कि सत्ता केवल एक पद या चुनाव का विषय नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संरचना, पारिवारिक संबंधों और ऐतिहासिक परिस्थितियों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है।

निष्कर्ष

एशियाई राजनीति में सत्ता की स्थायिता और नेताओं का कुर्सी पर आजीवन कब्ज़ा एक आम प्रवृत्ति बन चुकी है। कजाख़स्तान में नज़रबायेव, उत्तर कोरिया में किम परिवार और कंबोडिया में हुन सेन के उदाहरण यह स्पष्ट रूप से दिखाते हैं। इन देशों में सत्ता केवल औपचारिक रूप से हस्तांतरित होती है; वास्तविक नियंत्रण वही लोग रखते हैं जो पहले सत्ता में थे। यह प्रवृत्ति लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थागत विकास के लिए एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत करती है।

आखिरकार, एशियाई राजनीति में सत्ता की स्थायिता एक जटिल वास्तविकता है, जो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, पारिवारिक संरचना और ऐतिहासिक परिस्थितियों का परिणाम है। इस प्रवृत्ति को समझना केवल राजनीतिक विश्लेषकों के लिए ही नहीं, बल्कि समाज और वैश्विक समुदाय के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि लोकतंत्र और राजनीतिक स्थायिता के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है, ताकि सत्ता केवल कुछ व्यक्तियों या परिवारों तक सीमित न रह जाए और जनता की वास्तविक भागीदारी सुनिश्चित हो।

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