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अनंत सत्ता का खेल: क्या लोकतंत्र धीरे-धीरे मर रहा है?

जब नेता नहीं छोड़ते कुर्सी: लोकतंत्र पर मंडराता सबसे बड़ा ख़तरा

लोकतंत्र का मूल आधार है जनता की भागीदारी, सत्ता का संतुलन और समय-समय पर नेतृत्व का परिवर्तन परंतु दुनिया के कई देशों में यह तस्वीर बदल रही है। नेता दशकों तक सत्ता से चिपके रहते हैं, संस्थाएँ कमजोर हो जाती हैं और जनता को नए नेतृत्व का अवसर नहीं मिलता। सवाल यह है कि जब सत्ता पर एक ही चेहरा बार-बार बैठा रहे तो क्या लोकतंत्र वास्तव में लोकतंत्र रह जाता है?

सत्ता की लंबी उम्र और लोकतंत्र का क्षरण

लोकतंत्र तभी जीवित रहता है जब उसमें नियमित बदलाव की गुंजाइश हो। सत्ता का परिवर्तन केवल चुनाव से नहीं, बल्कि संस्थाओं की मजबूती और जनता की आवाज़ से भी तय होता है। लेकिन जब एक ही नेता वर्षों तक, कभी संविधान में बदलाव करके तो कभी चुनावी मशीनरी पर नियंत्रण करके, सत्ता में बैठा रहता है तो लोकतंत्र धीरे-धीरे अपनी असली आत्मा खो देता है।

कैमरून का उदाहरण: 40 साल का शासन

अफ्रीकी देश कैमरून में पॉल बिया 1982 से सत्ता में हैं। चार दशकों से ज्यादा का शासन! चुनाव होते हैं, लेकिन विपक्ष को असली मौका नहीं मिलता। मीडिया और न्यायपालिका पर नियंत्रण इतना मजबूत है कि जनता के पास विकल्प ही नहीं बचता। यह लोकतंत्र का “आवरण” भर है, असल में यह सत्ता का निजीकरण है।

रूस: पुतिन का मजबूत जाल

रूस में व्लादिमीर पुतिन पहले प्रधानमंत्री बने, फिर राष्ट्रपति। बीच में संवैधानिक प्रावधानों को अपने हिसाब से ढाला, चुनावी प्रक्रिया पर कड़ी पकड़ बनाई और विपक्षी नेताओं को या तो हाशिए पर कर दिया या जेल में डाल दिया। आज रूस में चुनाव होते तो हैं, लेकिन वे वास्तविक विकल्प नहीं देते। पुतिन का राज यह दिखाता है कि जब एक व्यक्ति संस्थाओं से ऊपर हो जाए तो लोकतंत्र नाममात्र रह जाता है।

चीन: अनंतकालीन राष्ट्रपति का प्रयोग

2018 में चीन ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए कार्यकाल की सीमा खत्म कर दी। इसका मतलब यह हुआ कि वे सैद्धांतिक रूप से अनंत काल तक सत्ता में रह सकते हैं। चीन की “कम्युनिस्ट पार्टी” पहले ही जनता को विकल्प नहीं देती, और अब नेतृत्व का परिवर्तन भी लगभग असंभव हो गया है। यह मॉडल बताता है कि जब सत्ता स्थायी हो जाए तो देश की नीतियाँ एक ही व्यक्ति की सोच और प्राथमिकताओं पर टिकी रहती हैं।

तुर्की: एर्दोआन का बदलता लोकतंत्र

रेसेप तैयप एर्दोआन ने तुर्की की राजनीति को पूरी तरह से बदल डाला। वे पहले प्रधानमंत्री रहे, फिर राष्ट्रपति बने और संवैधानिक संशोधन के जरिए अपने अधिकारों को लगातार बढ़ाते गए। विपक्ष और मीडिया पर दबाव, न्यायपालिका पर पकड़ और चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप ने तुर्की को उस मुकाम पर ला दिया है जहां लोकतंत्र का “चेहरा” तो दिखता है, लेकिन असल में सत्ता का संतुलन टूट चुका है।

इज़राइल: नेतन्याहू की वापसी दर वापसी

बेंजामिन नेतन्याहू इज़राइल के सबसे लंबे समय तक रहने वाले प्रधानमंत्री बन चुके हैं। बार-बार सत्ता में वापसी और गठबंधन की राजनीति ने उन्हें लगभग अपराजेय बना दिया। हालांकि इज़राइल एक जीवंत लोकतंत्र है, लेकिन लंबे समय तक एक ही चेहरे का वर्चस्व राजनीतिक असंतुलन और ध्रुवीकरण को बढ़ाता है।

लंबे समय तक सत्ता टिकने के खतरे

  1. संस्थाओं का कमजोर होना न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया जैसी संस्थाएँ धीरे-धीरे केवल औपचारिक बन जाती हैं।

  2. विपक्ष का दबना चुनाव में असली विकल्प खत्म हो जाता है।

  3. नीतियों का निजीकरण देश की नीतियाँ जनता की ज़रूरतों के बजाय नेता की इच्छाओं पर आधारित हो जाती हैं।

  4. भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता जब जवाबदेही नहीं होती तो भ्रष्टाचार बढ़ना स्वाभाविक है।

  5. अस्थिरता का खतरा अगर अचानक नेता चला जाए तो उत्तराधिकार संकट पैदा होता है, जिससे देश अस्थिर हो सकता है।

कभी-कभी लाभ भी, पर ख़तरा अधिक

कुछ लोग कहते हैं कि लंबे समय तक सत्ता में रहने से नीतियों में निरंतरता मिलती है, बड़े प्रोजेक्ट पूरे होते हैं और राजनीतिक स्थिरता रहती है। लेकिन यह केवल तब तक सही है जब नेता ईमानदार और दूरदर्शी हो। अधिकतर मामलों में सत्ता का केंद्रीकरण जनता की भागीदारी को खत्म कर देता है और लोकतंत्र की असली ताकत खो जाती है।

जनता की भूमिका और ज़िम्मेदारी

लोकतंत्र को बचाने के लिए केवल संविधान या संस्थाएँ काफी नहीं होतीं। असली ताकत जनता के पास है। जब लोग सवाल पूछना छोड़ दें, जब वे बदलाव की मांग करना बंद कर दें, तब नेता सत्ता से चिपक जाते हैं। लोकतंत्र का भविष्य तभी सुरक्षित है जब जनता सजग और सक्रिय रहे।

निष्कर्ष

नेताओं का लंबे समय तक सत्ता में बने रहना लोकतंत्र के लिए धीरे-धीरे जहर जैसा है। यह स्थिरता के नाम पर जनता की आवाज़ दबाने का तरीका बन जाता है। कैमरून से लेकर रूस, चीन, तुर्की और इज़राइल तक कई उदाहरण हमें चेतावनी देते हैं कि लोकतंत्र केवल चुनाव कराने का नाम नहीं है, बल्कि यह सत्ता के संतुलन, संस्थाओं की मजबूती और जनता की भागीदारी से जीवित रहता है। अगर ये टूटते हैं तो लोकतंत्र सिर्फ नाम का रह जाता है और असल में सत्ता एक व्यक्ति या एक पार्टी की कैद बन जाती है।


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