मध्य पूर्व, जिसे हम मिडिल ईस्ट कहते हैं, दुनिया का वह क्षेत्र है जो तेल की अपार संपदा, धार्मिक महत्व और सामरिक स्थिति की वजह से हमेशा वैश्विक राजनीति के केंद्र में रहा है। लेकिन जब बात लोकतंत्र की आती है, तो यह क्षेत्र सबसे पिछड़ा हुआ नज़र आता है। यहाँ के राजनीतिक ढाँचों में राजशाही, तानाशाही और धर्म-आधारित शासन इतना गहराई से बैठ चुका है कि लोकतंत्र अब भी एक दूर का सपना लगता है। सऊदी अरब की राजशाही, यूएई के शेख परिवारों का शासन और सीरिया में बशर अल-असद की पकड़, यह सब इस बात के प्रतीक हैं कि यहाँ लोकतंत्र को सांस लेने की जगह तक नहीं मिली।
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उपनिवेशवाद की विरासत
मिडिल ईस्ट की राजनीतिक संरचना को समझने के लिए उसके इतिहास में झाँकना ज़रूरी है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ऑटोमन साम्राज्य का पतन हुआ और ब्रिटेन व फ्रांस ने इस क्षेत्र को अपने प्रभाव में बाँट लिया। नक्शे पर खींची गई कृत्रिम सीमाओं ने जातीय और धार्मिक विविधता को नज़रअंदाज़ कर दिया। नतीजा यह हुआ कि नए बने देशों में लोकतांत्रिक संस्थाएँ मजबूत ही नहीं हो पाईं और सत्ता अक्सर राजघरानों, सैन्य ताकतों या प्रभावशाली परिवारों के हाथ में सिमट गई।
तेल और सत्ता का रिश्ता
मिडिल ईस्ट की राजनीति में तेल सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। तेल की संपदा ने यहाँ की सरकारों को जनता पर निर्भर होने से लगभग मुक्त कर दिया। लोकतांत्रिक देशों में सरकारें टैक्स वसूलती हैं और इसीलिए जनता के प्रति जवाबदेह भी होती हैं। लेकिन सऊदी अरब, कतर और यूएई जैसे देशों में तेल से होने वाली अरबों डॉलर की कमाई ने इस ज़रूरत को खत्म कर दिया। शासक तेल की दौलत से जनता को सब्सिडी, मुफ्त सेवाएँ और नौकरियाँ देते हैं, और बदले में जनता राजनीतिक अधिकारों के बजाय आर्थिक सुरक्षा पर संतुष्ट हो जाती है।
धर्म और सत्ता का संगम
मिडिल ईस्ट की राजनीति में धर्म की भूमिका इतनी गहरी है कि वह लोकतंत्र को जगह ही नहीं देती। सऊदी अरब इस्लाम की कठोर व्याख्या वाले वहाबी विचारधारा पर आधारित कानून लागू करता है। ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद धर्मगुरु सर्वोच्च शासक बन गए और आज भी वहीं सत्ता का केंद्र हैं। धर्म आधारित शासन में विपक्ष को जगह नहीं मिलती क्योंकि धार्मिक सत्ता को चुनौती देना गुनाह माना जाता है। यही वजह है कि लोकतंत्र का ढाँचा यहाँ कमजोर बना रहता है।
सत्तावादी शासन की जकड़
मिडिल ईस्ट का बड़ा हिस्सा सत्तावादी शासन का प्रतीक है। सऊदी अरब में सऊद परिवार 1932 से सत्ता में है और आज भी उनकी पकड़ मज़बूत है। यूएई अलग-अलग अमीरातों में बँटा है, जहाँ हर जगह शेख परिवार शासन करता है। सीरिया में असद परिवार 1971 से सत्ता पर काबिज़ है और बशर अल-असद ने गृहयुद्ध के बावजूद अपनी स्थिति बनाए रखी। जॉर्डन और मोरक्को जैसे देशों में संवैधानिक राजतंत्र है, लेकिन वास्तविक ताकत राजा के पास ही है।
लोकतंत्र की कोशिशें और उनकी असफलताएँ
2011 का अरब स्प्रिंग इस क्षेत्र के इतिहास का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक आंदोलन था। ट्यूनिशिया में तानाशाह बेन अली को हटाकर लोकतंत्र की नींव रखी गई, लेकिन वहाँ भी स्थिरता अब तक सवालों के घेरे में है। मिस्र में हुस्नी मुबारक की तानाशाही खत्म हुई, लेकिन सेना ने जल्द ही सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। लीबिया में गद्दाफी का पतन हुआ, पर देश गृहयुद्ध में फँस गया। सीरिया में जनता ने लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग की, लेकिन आंदोलन गृहयुद्ध में बदल गया और बशर अल-असद आज भी सत्ता में हैं। यह सब दिखाता है कि लोकतंत्र की कोशिशें हुईं जरूर, लेकिन उनकी जड़ें कमजोर थीं और सत्ता की ताकत इतनी मजबूत थी कि वे टिक नहीं पाईं।
पश्चिमी देशों की दोहरी भूमिका
पश्चिमी देश अक्सर लोकतंत्र के समर्थन का दावा करते हैं, लेकिन मिडिल ईस्ट में उनका असली मकसद तेल और सुरक्षा ही रहा है। अमेरिका सऊदी अरब जैसे राजशाही देशों का सबसे बड़ा सहयोगी है क्योंकि वहाँ से तेल की स्थिर आपूर्ति मिलती है। लोकतंत्र की मांग करने वाले आंदोलनों को पश्चिम ने कभी पूरी ताकत से समर्थन नहीं दिया। इस दोहरे रवैये ने जनता का विश्वास तोड़ा और लोकतंत्र की जगह तानाशाही और अस्थिरता कायम रही।
जनता और लोकतंत्र का सपना
यह कहना गलत होगा कि मिडिल ईस्ट की जनता लोकतंत्र चाहती ही नहीं। अरब स्प्रिंग में लाखों लोग सड़कों पर उतरे और उन्होंने स्वतंत्रता, गरिमा और रोज़गार की मांग की। लेकिन शासकों के दमन और बाहरी हस्तक्षेप ने उनकी आवाज़ दबा दी। आज भी युवा पीढ़ी सोशल मीडिया पर बदलाव की बातें करती है, पर सरकारें सेंसरशिप और निगरानी से इन आवाज़ों को रोक देती हैं। जनता में लोकतंत्र की चाह तो है, लेकिन वह चाह सत्ता और व्यवस्था की दीवारों से टकराकर कमजोर पड़ जाती है।
क्यों लोकतंत्र अब भी सपना है
मिडिल ईस्ट में लोकतंत्र के लिए राह कठिन इसलिए है क्योंकि यहाँ राजशाही और तानाशाही का ढाँचा बहुत गहरा है। तेल ने शासकों को जनता पर निर्भर होने से रोका, धर्म आधारित शासन ने विपक्ष को खत्म कर दिया, सैन्य ताकतों ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर दिया और पश्चिमी देशों ने दोहरे रवैये से जनता को धोखा दिया। इसके ऊपर से गृहयुद्ध और आंतरिक संघर्षों ने स्थिरता को नामुमकिन बना दिया। यही वजह है कि लोकतंत्र आज भी यहाँ सपना ही है।
भविष्य की उम्मीद
हालाँकि यह रास्ता कठिन है, लेकिन नामुमकिन नहीं। शिक्षा और जागरूकता बढ़ने के साथ जनता अपने अधिकारों के प्रति और मुखर होगी। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने युवाओं को संगठित होने का नया मंच दिया है। दुनिया की बदलती राजनीति और वैश्विक दबाव भी आने वाले समय में इन देशों को मजबूर कर सकते हैं कि वे लोकतांत्रिक सुधारों की ओर कदम बढ़ाएँ।
निष्कर्ष
मिडिल ईस्ट आज भी लोकतंत्र के लिए उपजाऊ ज़मीन नहीं बन पाया है। यहाँ सत्ता का खेल, तेल की राजनीति, धर्म की पकड़ और तानाशाही की मजबूती लोकतंत्र को जगह नहीं देती। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जनता बदलाव चाहती है और अरब स्प्रिंग जैसी घटनाएँ बता चुकी हैं कि सपनों को दबाया नहीं जा सकता। सवाल सिर्फ इतना है कि क्या कभी सत्ता और बाहरी ताकतें इस सपने को हकीकत बनने देंगी या लोकतंत्र यहाँ आने वाले समय में भी सिर्फ़ सपना ही बना रहेगा।
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