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मीडिया और लोकतंत्र: चौथा स्तंभ या सत्ता का खिलौना?

मीडिया और लोकतंत्र: चौथा स्तंभ या सत्ता का खिलौना?

लोकतंत्र की मजबूती केवल संसद, न्यायपालिका और कार्यपालिका पर ही नहीं टिकी होती, बल्कि मीडिया को भी इसका चौथा स्तंभ माना गया है। मीडिया जनता और सत्ता के बीच सेतु का काम करता है, जनता की आवाज़ को नेताओं तक पहुँचाता है और सत्ता की नीतियों को आम लोगों तक पहुँचाता है। परंतु आज के दौर में बड़ा सवाल यह है कि क्या मीडिया सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बना हुआ है, या धीरे-धीरे वह सत्ता और कॉर्पोरेट हितों का खिलौना बनता जा रहा है।

मीडिया की ऐतिहासिक भूमिका

यदि हम इतिहास की ओर देखें तो मीडिया का लोकतंत्र में योगदान बहुत गहरा रहा है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अख़बारों और पत्रिकाओं ने जनता को जागरूक किया और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ माहौल तैयार किया। बाल गंगाधर तिलक का ‘केसरी’ और महात्मा गांधी का ‘यंग इंडिया’ जैसे अख़बार केवल सूचना देने का माध्यम नहीं थे, बल्कि वे स्वतंत्रता की लड़ाई का हथियार बन चुके थे। इसी प्रकार अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों में भी प्रेस की स्वतंत्रता ने लोकतांत्रिक आदर्शों को मज़बूती दी।

लोकतंत्र में मीडिया की जिम्मेदारी

लोकतंत्र में मीडिया की पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी जनता को सच बताना है। यह मीडिया का काम है कि वह सत्ता से सवाल करे, उसकी नीतियों की समीक्षा करे और जनता को जानकारी दे कि निर्णयों का असर उन पर क्या पड़ेगा। यदि मीडिया केवल सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करने लगे और समस्याओं को दबा दे तो लोकतंत्र कमजोर हो जाता है। इसीलिए संविधान ने प्रेस की स्वतंत्रता को बहुत महत्व दिया है।

मीडिया और सत्ता का दबाव

समस्या तब शुरू होती है जब मीडिया अपनी स्वतंत्र भूमिका निभाने के बजाय सत्ता का पक्ष लेने लगता है। कई बार विज्ञापनों और आर्थिक दबाव के कारण मीडिया सरकार या बड़े कॉर्पोरेट घरानों की ओर झुक जाता है। परिणाम यह होता है कि जो मुद्दे जनता के जीवन से जुड़े होते हैं, जैसे बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार, वे पीछे छूट जाते हैं और उनकी जगह सनसनीखेज़ खबरें या सत्ता समर्थक प्रचार छा जाता है। लोकतंत्र में जब मीडिया की स्वतंत्रता पर असर पड़ता है तो जनता के पास सच्चाई जानने का कोई ठोस साधन नहीं बचता।

डिजिटल मीडिया और नई चुनौतियाँ

बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया का उदय हुआ। अब हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन और इंटरनेट है, जिससे खबरें तुरंत फैलने लगी हैं। यह बदलाव लोकतंत्र के लिए सकारात्मक भी है क्योंकि जनता अपनी राय सीधे रख सकती है और किसी भी अन्याय की जानकारी तेजी से साझा कर सकती है। लेकिन इसके साथ ही एक बड़ी चुनौती भी आई है—फर्जी खबरें और अफवाहें। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कई बार लोकतांत्रिक विमर्श को मजबूत करने के बजाय उसे भ्रम और ध्रुवीकरण की ओर ले जाते हैं।

मीडिया की आज की स्थिति

आज भारत समेत दुनिया के कई देशों में यह बहस चल रही है कि मीडिया स्वतंत्र है या सत्ता के नियंत्रण में। भारत में कई प्रमुख चैनल और अखबारों पर आरोप लगते हैं कि वे सत्ताधारी दल का पक्ष लेते हैं और विपक्ष की आवाज़ को कम जगह देते हैं। अमेरिका में भी “फेक न्यूज़” और पक्षपाती पत्रकारिता लोकतंत्र के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। अफ्रीका और एशिया के कई देशों में तो पत्रकारों की सुरक्षा ही एक बड़ा सवाल है, जहाँ सच बोलने की कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है।

जनता और मीडिया का रिश्ता

लोकतंत्र तभी मजबूत रह सकता है जब जनता और मीडिया का रिश्ता पारदर्शी और ईमानदार हो। जनता को चाहिए कि वह केवल एक ही स्रोत पर निर्भर न रहे, बल्कि अलग-अलग माध्यमों से जानकारी ले और उसकी तुलना करे। इसी तरह मीडिया संस्थानों को भी यह समझना होगा कि उनकी असली ताकत जनता का भरोसा है। अगर यह भरोसा टूट गया तो मीडिया का अस्तित्व केवल मनोरंजन और प्रचार तक सीमित होकर रह जाएगा।

निष्कर्ष

मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और इसे केवल सत्ता या कॉर्पोरेट हितों का साधन बनाकर नहीं रखा जा सकता। इतिहास गवाह है कि जब-जब मीडिया ने सच्चाई को जनता तक पहुँचाने का साहस किया है, तब-तब लोकतंत्र मजबूत हुआ है। वहीं जब-जब मीडिया सत्ता के दबाव में झुका है, लोकतंत्र कमजोर हुआ है। इसलिए मीडिया को अपनी मूल जिम्मेदारी याद रखनी चाहिए—जनता की आवाज़ बनना, सत्ता पर निगरानी रखना और लोकतंत्र को जीवित रखना।


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