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वैश्विक लोकतंत्र की चुनौतियाँ: अमेरिका से अफ्रीका तक।


वैश्विक लोकतंत्र की चुनौतियाँ: अमेरिका से अफ्रीका तक

लोकतंत्र को अक्सर सबसे आदर्श शासन प्रणाली माना जाता है। यह विचार कि जनता अपने नेताओं को चुनती है और सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है, पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। परंतु आज जब हम वैश्विक राजनीति को देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि लोकतंत्र की स्थिति कहीं न कहीं संकट में है। अमेरिका जैसे विकसित देशों से लेकर अफ्रीका जैसे संघर्षशील महाद्वीपों तक लोकतांत्रिक व्यवस्था कई गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है।

अमेरिका: लोकतंत्र का आदर्श या गहरे संकट में?

अमेरिका को लंबे समय तक लोकतंत्र का आदर्श माना गया। संविधान, मानवाधिकारों की रक्षा और शक्तियों का संतुलन इसकी विशेषता रहे हैं। परंतु हाल के वर्षों में वहाँ गहरी ध्रुवीकरण की राजनीति, नस्लीय तनाव और चुनावी प्रक्रिया पर उठते सवालों ने लोकतंत्र की छवि को झटका दिया है। 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद कैपिटल हिल पर हिंसा ने यह स्पष्ट कर दिया कि लोकतांत्रिक संस्थाएँ भी राजनीतिक विभाजन के दबाव में कमजोर पड़ सकती हैं। अमेरिका का यह अनुभव बताता है कि लोकतंत्र केवल संस्थागत ढाँचा नहीं है, बल्कि इसके लिए नागरिकों का आपसी विश्वास और सहमति भी उतनी ही ज़रूरी है।

यूरोप: पॉपुलिज़्म और ब्रेग्ज़िट की चुनौती

यूरोप लंबे समय तक लोकतंत्र और कल्याणकारी राज्य का केंद्र रहा है। परंतु बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में यहाँ पॉपुलिज़्म की राजनीति तेज़ हुई। ब्रेग्ज़िट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से बाहर निकलने का निर्णय लिया। इसके पीछे जनता की असंतुष्टि, राष्ट्रवाद और प्रवासियों के प्रति असुरक्षा की भावना काम कर रही थी। इसी तरह हंगरी और पोलैंड जैसे देशों में भी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सरकार का दबाव बढ़ता दिख रहा है। यूरोप की यह स्थिति बताती है कि लोकतंत्र केवल चुनाव तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके लिए संस्थाओं की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की रक्षा भी आवश्यक है।

अफ्रीका: लोकतंत्र और तानाशाही का संघर्ष

अफ्रीका महाद्वीप लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौतीपूर्ण भूमि है। यहाँ कई देशों ने स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक ढाँचे अपनाए, लेकिन जल्दी ही तानाशाही और सैन्य शासन ने उनकी जगह ले ली। जिम्बाब्वे में रॉबर्ट मुगाबे का लंबा शासन, युगांडा में योवेरी मुसेवेनी की सत्ता या हाल के वर्षों में कई देशों में तख्तापलट यह दिखाते हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाएँ कितनी नाजुक हो सकती हैं। इसके अलावा गरीबी, भ्रष्टाचार और जातीय संघर्ष लोकतंत्र को मजबूत होने से रोकते हैं। फिर भी नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में लोकतंत्र ने कुछ हद तक स्थिरता पाई है, जो भविष्य के लिए उम्मीद जगाती है।

एशिया: चीन का मॉडल बनाम भारतीय लोकतंत्र

एशिया में लोकतंत्र का परिदृश्य और भी जटिल है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ करोड़ों लोग मतदान प्रक्रिया में भाग लेते हैं। हालांकि यहाँ भी जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण, चुनावी खर्च और भ्रष्टाचार लोकतंत्र की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर, चीन ने लोकतंत्र को पूरी तरह नकार कर “सत्तावादी विकास मॉडल” प्रस्तुत किया है। आर्थिक विकास और तकनीकी प्रगति के आधार पर चीन यह दावा करता है कि लोकतंत्र के बिना भी जनता की ज़रूरतें पूरी की जा सकती हैं। यह स्थिति एशिया में लोकतंत्र और अधिनायकवाद के बीच एक नई बहस खड़ी करती है।

लैटिन अमेरिका: लोकतंत्र और अस्थिरता

लैटिन अमेरिका का इतिहास तख्तापलट और सैन्य शासन से भरा हुआ है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यहाँ लोकतंत्र ने वापसी की, लेकिन भ्रष्टाचार, मादक पदार्थों का व्यापार और आर्थिक असमानता ने इसे कमजोर किया। ब्राजील, वेनेज़ुएला और चिली जैसे देशों में लगातार सत्ता परिवर्तन और विरोध प्रदर्शनों से यह स्पष्ट होता है कि लोकतंत्र केवल चुनाव कराने से स्थिर नहीं होता। इसके लिए न्यायपालिका, मीडिया और नागरिक समाज की सक्रियता भी ज़रूरी है।

वैश्विक लोकतंत्र की समान चुनौतियाँ

भले ही देशों की परिस्थितियाँ अलग-अलग हों, लेकिन वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र की कुछ सामान्य चुनौतियाँ हैं। पहली चुनौती है राजनीतिक ध्रुवीकरण, जहाँ नागरिक दो ध्रुवों में बँट जाते हैं और सहमति की गुंजाइश कम हो जाती है। दूसरी चुनौती है मीडिया और सूचना का संकट—फेक न्यूज़, प्रचार और डिजिटल हस्तक्षेप ने जनता की राय को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। तीसरी चुनौती है आर्थिक असमानता, जिसके कारण लोकतांत्रिक प्रक्रिया में केवल वही लोग प्रभावी हो पाते हैं जिनके पास संसाधन हैं।

निष्कर्ष

लोकतंत्र एक निरंतर विकसित होने वाली व्यवस्था है, लेकिन यह स्वतःस्फूर्त रूप से जीवित नहीं रह सकता। अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के अनुभव बताते हैं कि लोकतंत्र की जड़ें गहरी तभी हो सकती हैं जब संस्थाएँ मजबूत हों, जनता जागरूक हो और सत्ता को जवाबदेह ठहराने की संस्कृति बनी रहे। अगर यह संतुलन टूटता है तो लोकतंत्र केवल नाम भर का रह जाता है। वैश्विक परिदृश्य हमें यह सिखाता है कि लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए निरंतर संघर्ष और सुधार आवश्यक हैं।


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